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 क्या इस तरह के वास्तुकला महज संयोग है? इतने संयोग कैसे हो सकते है? अगर कोई ऐसे संयोग कहे तो उससे बड़ा अज्ञानी इस धरती पर कोई नहीं है.. 


यह 12वीं शताब्दी में बना वीरनारायण मंदिर है..

 प्रत्येक वर्ष 23 मार्च को सूर्य इस मंदिर के बीचोबीच आता है..

23 मार्च को सूर्य की स्थिति को ध्यान में रखकर इस मंदिर को बनाना अपने आप में एक हैरान करने वाली वास्तुकला है.. 

लेकिन हैरान नहीं होना है,गर्व करना है हमारे पूर्वजों के उस ज्ञान पर जिसे मुगलों के द्वारा,आक्रमणकारियों के द्वारा नष्ट करने की लगातार कोशिश की गई लेकिन नष्ट नहीं कर पाए क्योंकि जो सत्य है वहीं सनातन है..

(वीरनारायण मंदिर, चिकमंगलूर, कर्नाटक)


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दीपक जलाने के पीछे छीपा विज्ञान

               सनातन वैदिक हिंदू धर्म में दीपक का अपना विशेष स्थान है। यह तेज का प्रतीक है । ‘ तमसो मा ज्योतिर्गयम्’ । दीपक का अर्थ हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। यह केवल आदमी को शांति और प्रकाश का संदेश देने के लिए जलता है।  Dipak jalane ke pichhe vigyaan  पूजा के अनुष्ठान के दौरान पाठ किया जाने वाला निम्न मंत्र इसके महत्व को बताता है । भोदीपब्रह्मरूपस्वंान   ज्यो्तिषांप्रभुरव्य्य: ।। आरोग्यंरदेहिपुत्रांश्चनमत:शांतिं प्रयच्छमे ।।              हे दीपक के देवता, आप ब्रह्म  (परम सत्य) के रूप हैं। आप मूलांक से भरे हुए हैं। तुम कभी मुरझाते नहीं। कृपया मुझे स्वास्थ्य और अच्छी संतान की शुभकामनाएं दें और कृपया मेरी इच्छाओं को पूरा करें।            अग्नि पुराण में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि दीपक में केवल तेल या घी का उपयोग पूजा के लिए किया जाता है और कोई अन्य दहनशील पदार्थ नहीं। अध्यात्म विज्ञान के अनुसार,  घी के साथ दीपक अधिक सात्विक (आध्यात्मिक रूप से शुद्ध) है।              'घी' के अंदर एक सुगंध होती है जो जलने वाले स्थान पर काफी देर तक अपनी उपस्थिति
              इंदौर से 100 किलोमीटर दूर माँ नर्मदा के तट पर महेश्वर कोट किला जो खरगोंन (मप्र,) में स्थित है । जिसका महारानी अहिल्याबाई होल्कर जी ने निर्माण कराया था । यह किला भारतीय वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है । आइए जानते हैं,कुछ इसके बारे में....                 देवी अहिल्याबाई की राजधानी बनने के बाद महेश्वर ने विकास के कई अध्याय देखे. एक छोटे से गाँव से इंदौर स्टेट की राजधानी बनने के बाद अब महेश्वर को बड़ी तेजी से विकसित किया जा रहा था. सामाजिक, धार्मिक भौतिक तथा सांस्कृतिक विकास के साथ ही साथ देवी अहिल्या बाई ने अपनी राजधानी को औद्योगिक रूप से समृद्ध करने के उद्देश्य से अपने यहाँ वस्त्र निर्माण प्रारंभ करने की योजना बनाई. उस समय पुरे देश में वस्त्र निर्माण तथा हथकरघा में हैदराबादी बुनकरों का कोई जवाब नहीं था. अतः देवी अहिल्या बाई ने हैदराबाद के बुनकरों को अपने यहाँ महेश्वर में आकर बसने के लिए आमंत्रित किया तथा अपना बुनकरी का पुश्तैनी कार्य यहीं महेश्वर में रहकर करने के आग्रह किया. अंततः देवी अहिल्या के प्रयासों से हैदराबाद से कुछ बुनकर महेश्वर आकर बस गए तथा यहीं अपना कपडा बुनने का
एक प्रमेय (Theorem) होती है जिसका हम नवमी-दसमी से लेकर बारह्वी कक्षा तक प्रयोग करते हैं, जिसे हम पईथागोरस थेओरम कहते हैं| पईथागोरस का जन्म हुआ ईसा से आठ शताब्दी पहले हुआ था और ईसा के पंद्रहवी शताब्दी पहले के भारत के गुरुकुलों के रिकार्ड्स बताते हैं कि वो प्रमेय हमारे यहाँ था, उसको हम बोधायन प्रमेय के रूप में पढ़ते थे| बोधायन एक महिर्षि हुए उनके नाम से भारत में ये प्रमेय ईशा के जन्म के पंद्रहवी शताब्दी पहले पढाई जाती थी यानि आज से लगभग साढ़े तीन हज़ार साल पहले भारत में वो प्रमेय पढाई जाती थी, बोधायन प्रमेय के नाम से और वो प्रमेय है – किसी आयत के विकर्ण द्वारा व्युत्पन्न क्षेत्रफल उसकी लम्बाई एवं चौड़ाई द्वारा पृथक-पृथक व्युत्पन्न क्षेत्र फलों के योग के बराबर होता है। तो ये प्रमेय महिर्षि बोधायन की देन है जिसे हम आज भी पढ़ते हैं और पईथागोरस नाम से | शुल्ब सूत्र या शुल्बसूत्र संस्कृत के सूत्रग्रन्थ हैं जो स्रौत कर्मों से सम्बन्धित हैं। इनमें यज्ञ-वेदी की रचना से सम्बन्धित ज्यामितीय ज्ञान दिया हुआ है। संस्कृत कें शुल्ब शब्द का अर्थ नापने की रस्सी या डोरी होता है। अपने नाम के अनुसार शु