इंदौर से 100 किलोमीटर दूर माँ नर्मदा के तट पर महेश्वर कोट किला जो खरगोंन (मप्र,) में स्थित है । जिसका महारानी अहिल्याबाई होल्कर जी ने निर्माण कराया था । यह किला भारतीय वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है ।
आइए जानते हैं,कुछ इसके बारे में....
देवी अहिल्याबाई की राजधानी बनने के बाद महेश्वर ने विकास के कई अध्याय देखे. एक छोटे से गाँव से इंदौर स्टेट की राजधानी बनने के बाद अब महेश्वर को बड़ी तेजी से विकसित किया जा रहा था. सामाजिक, धार्मिक भौतिक तथा सांस्कृतिक विकास के साथ ही साथ देवी अहिल्या बाई ने अपनी राजधानी को औद्योगिक रूप से समृद्ध करने के उद्देश्य से अपने यहाँ वस्त्र निर्माण प्रारंभ करने की योजना बनाई. उस समय पुरे देश में वस्त्र निर्माण तथा हथकरघा में हैदराबादी बुनकरों का कोई जवाब नहीं था. अतः देवी अहिल्या बाई ने हैदराबाद के बुनकरों को अपने यहाँ महेश्वर में आकर बसने के लिए आमंत्रित किया तथा अपना बुनकरी का पुश्तैनी कार्य यहीं महेश्वर में रहकर करने के आग्रह किया. अंततः देवी अहिल्या के प्रयासों से हैदराबाद से कुछ बुनकर महेश्वर आकर बस गए तथा यहीं अपना कपडा बुनने का कार्य करने लगे. इन बुनकरों के हाथ में जैसे जादू था, वे इतना सुन्दर कपडा बुनते थे की लोग दांतों तले ऊँगली दबा लेते थे.
इन बुनकरों को प्रोत्साहित करने के लिए देवी अहिल्या बाई इनके द्वारा निर्मित वस्त्रों का एक बड़ा हिस्सा स्वयं खरीद लेती थी जिससे इन बुनकरों को लगातार रोजगार मिलता रहता था. इस तरह ख़रीदे वस्त्र महारानी अहिल्या बाई स्वयं के लिए, अपने रिश्तेदारों के लिए तथा दूर दूर से उन्हें मिलने आने वाले मेहमानों तथा आगंतुकों को भेंट देने में उपयोग करती थीं. इस तरह से कुछ ही वर्षों में महेश्वर में निर्मित इन वस्त्रों खासकर साड़ियों की ख्याति पुरे भारतवर्ष में फैलने लगी, तथा अब महेश्वरी साड़ी अपने नाम से बहुत दूर दूर तक मशहूर हो गई थी.
इन बुनकरों से देवी अहिल्या बाई का विशेष आग्रह होता था की वे इन साड़ियों पर तथा अन्य वस्त्रों पर महेश्वर किले की दीवारों पर बनाई गई डिजाइनें बनाएं. और ये बुनकर ऐसा ही करते, आज भी महेश्वरी साड़ियों की बौर्डर पर आपको महेश्वर किले की दीवारों के शिल्प वाली डिजाइनें मिल जायेंगीं.
देवी अहिल्या बाई चली गईं, राज रजवाड़े चले गए, सब कुछ बदल गया लेकिन जिस तरह आज भी महेश्वर का किला अपनी पूरी शानो शौकत से नर्मदा नदी के किनारे खड़ा है उसी तरह महेश्वर की वे प्रसिद्द साड़ियाँ आज भी अपने उसी स्वरुप उसी निर्माण पद्धति, उसी सामग्री तथा उसी रंग रूप एवं डिजाइन में निर्मित होती है तथा महेश्वर के अलावा देश के अन्य कई हिस्सों में महेश्वरी साड़ी के नाम से बहुतायत में बिकती हैं.
महेश्वरी साड़ियों की परंपरा को जीवित रखने के लिए तथा इस कला के विकास के लिए इंदौर राज्य के अंतिम शासक महाराजा यशवंतराव होलकर के इकलौते पुत्र युवराज रिचर्ड ने रेवा सोसाइटी नामक एक संस्था तथा ट्रस्ट का निर्माण किया तथा आज भी उनकी देख रेख में महेश्वर के किले में ही महेश्वरी साड़ियों का निर्माण होता है, बनाने वाले कारीगर भी उन्ही बुनकरों के वंशज हैं जो देवी अहिल्या बाई के समय हुआ करते थे, तथा जिन्हें देवी अहिल्याबाई ने हैदराबाद से आमंत्रित किया था.
▪️मध्य प्रदेश का महेश्वर शहर खूबसूरती के लिहाज से काफी लोकप्रिय है।नर्मदा नदी के पास बने 250 साल पुरानेकिले में देश-विदेश से टूरिस्ट आते हैं।
▪️रानी देवी अहिल्या के शासनकाल में महेश्वरी साड़ी की विश्वस्तर की पहचान बनी।
▪️रामायण और महाभारत में महेश्वर को महिष्मती के नाम से संबोधित किया गया है।
▪️देवी अहिल्याबाई के समय में बनाए गए सुंदर घाटों का प्रतिबिम्ब नदी में दिखताहै।
▪️महेश्वरकिले के अंदर रानी #अहिल्याबाई की राजगद्दी पर बैठी एक प्रतिमा रखी है।
▪️महेश्वर घाट के पास कालेश्वर, राजराजेश्वर, विठ्ठलेश्वर और अहिलेश्वर के सुंदर मंदिर हैं।
▪️किले के अंदर हेरिटेज होटल भी है, जो किसी रॉयल होटल से कम नहीं है।
▪️किले में बने होटल में 13 कमरे हैं। जिसमें 2 रॉयल सूट है, जिसमें प्राइवेट बालकनी है।
▪️होटल के ज्यादातर कमरोंसे नर्मदा नदी की खूबसूरती नजर आती है।
▪️इस होटल की खास बात है कि यहां बनाई जाने वाली सब्जियां यहीं गार्डन में उगाई जाती हैं।
जानिए, कौन थे सहस्त्रबाहु👇
कभी महिष्मती नगर (आज का महेश्वर) में राजा सहस्त्रार्जुन का शासन था। वे क्षत्रियों के हैहय वंश के राजा कार्तवीर्य और रानी कौशिक के पुत्र थे। उनका का वास्तविक नाम अर्जुन था। उन्होंने दत्तात्रेय भगवान को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की। उनकी इस तपस्या से भगवान दत्तात्रेय प्रसन्न हुए और वरदान मांगने की बात कही। तब सहस्त्राबाहुने दत्तात्रेय से 1 हजार हाथों होने का वर मांगा। इसके बाद से उनका नाम अर्जुन से सहस्त्रार्जुन पड़ गया।
एक हजार हाथों से रोक दिया नर्मदा का बहाव
महाराज सहस्त्रबाहु उन पराक्रमी राजाओं में से थे, जिन्होंने रावण को भी अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया था।
वाल्मीकि रामायण के मुताबिक, राक्षसों का राजा रावण लगभग सभी राजाओं पर जीत हासिल कर चुका था।
जब रावण नेराजा सहस्त्रबाहु का नाम सुना तो उसके मन में उन्हें भी हराने की इच्छा हुई।उन्हें जीतने वह माहिष्मती पहुंचा। उस समय सहस्त्रबाहु अपनी पत्नियों के साथ नदी में जल-क्रीड़ा कर रहे थे। रावण को जब पता चला कि सहस्त्रबाहु अर्जुन नगर में नहीं है तो वह युद्ध की इच्छा से वहीं रुक गया।
नर्मदा नदीकी जलधारा देखकर रावण ने वहां भगवान शिव की पूजा करने के बारे में सोचा।जिस जगह पर रावण भगवान शिव की पूजा कर रहा था, वहां से थोड़ी दूर सहस्त्रबाहु जल-क्रीड़ा में मग्न थे।सहस्त्रबाहु ने अपने 1 हजार हाथों से नर्मदा का बहाव रोक दिया, जिससे पानी तटों के ऊपर चढ़ने लगा।
जिस जगह पर रावण भगवान शिव की पूजा कर रहा था, वह भी नर्मदा के जल में डूब गया। अचानक नर्मदा में आई इस बाढ़ का कारण जानने के लिए रावण ने अपने सैनिकों को भेजा। सहस्त्रबाहु ने अचानक नर्मदा का जल छोड़ दिया, जिससे रावण की पूरी सेना बहाव में बह गई। इस हार के बाद रावण सहस्त्रबाहु से युद्ध करने पहुंचा और उन्हें ललकारा।
नर्मदा के तट पर ही रावण और सहस्त्रबाहु अर्जुन में भयंकर युद्ध हुआ। आखिर में सहस्त्रबाहु अर्जुन ने रावण को कैद कर लिया।जब यह बात रावण के दादा #पुलस्त्य ऋषि को पता चली तो वे सहस्त्रबाहु अर्जुन के पास आए और अपने पाेते को वापस मांगा।महाराज #सहस्त्रबाहु ने ऋषि के सम्मान में उनकी बात मानते हुए रावण पर विजय पाने के बाद भी उसे मुक्त कर दिया और उससे दोस्ती कर ली।
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